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यो दे॒ह्यो॒३॒॑अन॑मयद्वध॒स्नैर्यो अ॒र्यप॑त्नीरु॒षस॑श्च॒कार॑। स नि॒रुध्या॒ नहु॑षो य॒ह्वो अ॒ग्निर्विश॑श्चक्रे बलि॒हृतः॒ सहो॑भिः ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yo dehyo anamayad vadhasnair yo aryapatnīr uṣasaś cakāra | sa nirudhyā nahuṣo yahvo agnir viśaś cakre balihṛtaḥ sahobhiḥ ||

पद पाठ

यः। दे॒ह्यः॑। अन॑मयत्। व॒ध॒ऽस्नैः। यः। अ॒र्यऽप॑त्नीः। उ॒षसः॑। च॒कार॑। सः। नि॒ऽरुध्य॑। नहु॑षः। य॒ह्वः। अ॒ग्निः। विशः॑। च॒क्रे॒। ब॒लि॒ऽहृतः॑। सहः॑ऽभिः ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:6» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:9» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर कैसा राजा अत्यन्त उत्तम होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो (यः) जो (देह्यः) बढ़ाने योग्य (वधस्नैः) मारने से शुद्ध करनेवाले न्यायाधीशों से दुष्टों को (अनमयत्) नम्र करावे (यः) जो सूर्य जैसे (उषसः) प्रातःकाल की वेलाओं को सुशोभित करता है, वैसे (अर्यपत्नीः) स्वामी की स्त्रियों को शोभित (चकार) करता है और जो (नहुषः) सत्य में बद्ध (यह्वः) महान् (अग्निः) अग्नि के तुल्य तेजस्वी (सहोभिः) सहनशील बलिष्ठों के साथ शत्रुओं को (निरुध्या) रोक के (विशः) प्रजाओं को (बलिहृतः) कर पहुँचानेवाला (चक्रे) करे (सः) वह सब को पिता के तुल्य पूज्य है ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे प्रजाजनो ! जो अत्यन्त विद्वान् दुष्टाचारियों और अन्याय के वर्त्ताव को रोक जितेन्द्रिय होके न्यायपूर्वक प्रजा से कर लेता है, वह सब को बढ़ाने योग्य होता है ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः कीदृशो राजोत्तमतमो भवतीत्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्यो ! यो देह्यो वधस्नैर्दुष्टाननमयद्यः सूर्य उषस इवाऽर्यपत्नीश्चकार यो नहुषो यह्वोऽग्निरिव सहोभिश्शत्रून् निरुध्या विशो बलिहृतश्चक्रे स सर्वैः पितृवत्पूज्यः ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) (देह्यः) उपचेतुं वर्धयितुं योग्यः (अनमयत्) दुष्टान्नम्रान् कारयेत् (वधस्नैः) वधेन शोधकैर्भृत्यैर्न्यायाधीशैः (यः) (अर्यपत्नीः) स्वामिनां भार्या (उषसः) प्रातर्वेला इव सुशोभिताः (चकार) करोति (सः) (निरुध्या) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (नहुषः) सत्ये बद्धः (यह्वः) महान् (अग्निः) अग्निरिव तेजस्वी (विशः) प्रजाः (चक्रे) कुर्यात् (बलिहृतः) या बलिं हरन्ति ताः (सहोभिः) सहनशीलैर्बलिष्ठैः ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे प्रजाजना ! यो विद्वत्तमो दुष्टाचारानन्यायवृत्तिं च निरुध्य जितेन्द्रियो भूत्वा न्यायेन प्रजाभ्यो बलिं हरति स सर्वैर्वर्धनीयो भवति ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे प्रजाजनांनो ! जो अत्यंत विद्वान, दुष्टाचरणी व अन्यायी लोकांना रोखून जितेन्द्रिय बनून न्यायाने प्रजेकडून कर घेतो तो सर्वांची वृद्धी करण्यायोग्य असतो. ॥ ५ ॥